पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४९५

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४९२ मनुस्मृति भाषानुवाद इयं भूमिहि भूतानां शाश्वती योनिरुच्यते । न च योनिगुणान् कांश्चिद्वीजं पुष्यति पुष्टिषु ॥३७॥ भूमावप्येककेदारे कालोप्तानि कृषीवलैः । नानाम्माणि जायन्ते बीजानीह स्वभावतः ||३|| यह भूमि प्राणियो की सनातन योनि कही जाती है, परन्तु वीज भूमि के किन्ही गुणो को पुष्ट नहीं करता (किन्तु अपने ही गुणो को बताता है) ॥३७॥ एक प्रकार की भूमि के खेत में भी किसान लोग समय पर अनेक बीज ( यवगोधूम ) बोते हैं परन्तु अपने २ स्वभाव से वे नानारूप उत्पन्न होते हैं (अर्थात् एक भूमि से एक रूप नहीं होता किन्तु चीजो के हो अनुरूप मिन्नवृक्षादि होते हैं) ॥३८॥ श्रीहय; शालयोमुद्गास्तिजा मापास्तथा ययाः । यथा बीजं प्रराहन्ति लशुनानीक्षवस्तथा ॥३॥ श्रन्यगुप्त जातमन्यदित्येतत्रोपपद्यते । उप्यते यद्धि यद्बीजं तत्तदेव प्ररोहति ॥४०॥ साठी, धान, मूग, विल, उड़द, यव, लहसन और गन्ने सव जैसे रवीज हो वैसे ही उत्पन्न होते हैं ॥३९॥ वोया कुछ हो और उत्पन्न कुछ हो, ऐसा नहीं होता जो २ बीज बोया जाता है वही २ उत्पन्न होता है ॥४०॥ तत्माक्षेन विनीतेन ज्ञानविज्ञानवेदिना । आयुष्कामेन वप्तव्यं न जातु परयो पिति ॥४१॥ अत्र गाथा धायुगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः । यथाः वीजं न वप्तव्यं पुसा पर परिग्रहे ॥४२॥"