पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४९७

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मनुस्मृति भाषानुवाद है, वही भार्या है (जैसा कि कुल्लूक ने शवपथ का प्रमाण दिया है कि 'अह वा एष आत्मनस्तस्माद्यज्जायां न विन्दते०" इत्यादि) ॥४५॥ विक्रय वा त्याग से स्त्री पति से नहीं छूट सकती ऐसा पूर्व से प्रजापति का रचा हुचा नित्य धर्म हम जानते हैं ।।४६|| सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते । सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकत ॥१७॥ यथागोश्वोष्टदासीपु महिष्यजारिकासु च । नोत्पादकः प्रनामागी तथैवान्याङ्गनास्वपि ॥४८|| विभाग एक बार ही किया जाता है और एक ही बार कन्या- दान होता है और एक ही बार बचन दिया जाता है। सज्जनों की ये तीन बातें एक ही वार होती हैं (लोट फेर नही होती) ||४|| जैसे गाय, घोडा, उंट, दासी भैज और भेड़ इनमे सन्तान उत्पन्न करने वाला उसका भागी नहीं होता, वैसे ही दूसरे की स्त्री मे भी (जानो) ॥४८॥ येऽक्षेत्रिणो बीजवन्तः परक्षेत्रप्रवापिणः । ते नै सस्यस्य जातस्य न लमन्ते फलं क्वचिद् ॥४६॥ यइन्यगाए वृषभो बरसानां जनयेच्छतम् । गोमिनामेव ते वत्सा मोघं स्कन्दितमार्पमम् ॥३०॥ जो विना खेतके वीज वाले (अपने वीज को ) दूसरे के खेत में बोते हैं वे उत्पन्न हुवे अनाज के भागी कभी नहीं होते ॥४५॥ दूसरे की गायो मे सांड सौ १०० बछड़े भी पैदा करे तो भी वे बबड़े गाव वालो के ही होते हैं सांड का शुक्र सेचननिष्फल होता है ।।५०॥ 4