पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४९८

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नवमाध्याय ४९५ तथैवाग्नेत्रिणो बीजे परक्षेत्रप्रवापिणः । कुर्वन्ति क्षेत्रिणामर्थ न बीजीलभते फलम् ॥५१॥ फलं सनभिसंधाय तैत्रिणां दीविनां तथा । प्रत्यक्षं चेत्रिणामय बीजायोजिर्गीयसी ॥१२॥ उसी प्रकार बिना खेत वाले वीज को दूसरे के खेत में बोव तो खेत वाले का ही प्रयोजन सिद्ध करते हैं। बीज वाला फल नहीं पाता ।।शा जहां पर खेत वाले और ई - वाले इन दोनों के फन के बांट का नियम कुछ न हुवा हो वहां प्रत्यक्ष में खेत पाने का प्रयोजन सिद्ध होता है। इस लिये बीज से योनि बहुत बलवती है ।।२।। क्रियाभ्युपगमायतबीजार्थ यत्प्रदीयते । तस्येह भागिन दृष्टौ बीजी क्षेत्रकएव च ॥५३॥ ओषबाताहतं धीजं यस्य क्षेत्र प्रराहति । क्षेत्रिकस्यैव तीज न वप्ता लभते फलम् ॥५४॥ परन्तु "जो इस खेत मे जलन होगा वह हमारा तुम्हारा दोनों का होगा। इस नियम पर रेत वाला बोने के लिये बीज वाले कादेता है तो दोनो लोग भागी होने देखे गये हैं। शाओधीज जल के वेग वा वायु से.उड कर दूसरे के खेत में गिर कर उत्पन्न हो उस के फल का भागी खत वाला ही होता है, न कि वोने बाला ||१४|| एप धी गवाण्वस्य दास्युष्ट्राजाविकस्य च । विहङ्गमहिषीणां च विज्ञेयः प्रसवं प्रति ॥५५॥ एतदः सारफल्गुत्वं श्रीजयोन्योः प्रकीर्तितम् ।