पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५१

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४८ मनुस्मृति भाषानुवाद इसीमे भी जगत् की प्रथम कार्याऽवस्था वाले तत्व को ही 'अप् तत्व कहा जान पड़ता है ।। इसी यजु २७ । २५ मे स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी महारान ने भी (आप)-"च्यापिकास्तन्मात्र व्यापक जलोकी सूक्ष्ममात्रा कहा है और यजुर्वेद ३१७ मे पुन इस मन्त्र का प्रतीक आने पर मी उक्त स्वामी जी ने (आप ) व्याप्ता (आप) आकाशाः अर्थ किया है जिससे मेरे लिखे सन्ध्या पुस्तकाथ अर्णवः सभुनः के अर्थ जल मरा समुद्र-श्राकाश अर्थ की पुष्टि होती है। इसी को थाकाशतत्व भी कह सकते हैं। वास्तव में जगत की उत्पत्तिके प्रकरणमें प्राप:शब्द योगरूढ़ है, जो वेदों और अन्य सव शास्त्रोमे जहां सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है याहस्य से प्रयोग मे पाश है। इसी से पौराणिक समुद्र से कमन नाल में ब्रह्मा की स्पत्ति वाली कथा घडी गई जान पड़ती है। और इसी से ईसाइयों के उत्पत्ति प्रकरण के वाक्य कि ईश्वर का आत्मा जल पर होलता था इस्लादि घड़े गये अनुमान होते है ॥ ८॥ वह (वीज) चमकीला सूर्य के समान अण्डाकार बना था। उसमे परमात्मा (ब्रह्मा) सब लोक का पितामह आप प्रगट हुवा (अर्थात प्रथम उपादान कारण का एक चमकीला गोला सा बनाया) ॥९॥ आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः । ता यदस्यायनं पूर्व तेन नारायणः स्मृतः ॥ १० ॥ यत्तत्कारणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् । तादिष्टः स पुरुषो लोके ब्रह्मति कीत्यते ॥ ११ ।। अर्थ-अप् को नारा कहते हैं क्योकि नर परमात्मासे अप उत्पन्न