पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५०१

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४९८ मनुस्मृति भाषानुवाद न विवाहविश विधवाबेदन पुनः ॥६५. , अयं द्विजैहि विद्वद्भिः पशुधर्मो विगर्हित.। मनुष्याणामपि प्रोक्तोवेने राज्य प्रशासति ॥६॥" विवाह सम्बन्धी मन्त्रो में कहीं नियोग नही कहा है और न विवाह की विधि मे विधवा का पुनर्विवाह कहा है ॥६५॥ यह प्रोक्त-विधान किया हुवा भी मनुष्यों का नियोग गजा वेन के शासनकाल मे विद्वान् द्विजों द्वारा पशु धम और निन्दायुक्त कहा गया (क्यो कि :-)|| स महीमखिला मुजन् राजर्पिप्रवरः पुरा । वर्णानांसकर चके कामोपहातचेतनः ॥६॥ तत प्रमृति यो माहात्प्रमीतपतिकां स्त्रियम् । नियोजयत्यपत्यार्थ र विगईन्ति साधवः ॥६॥" "वह बेन राजा जो राजर्षियों मे बड़ा और पूर्वकाल मे सम्पूर्ण पृथ्वी को भोगता था, काम से नष्ट बुद्धि होकर वर्णसङ्कर करने लगा था ॥६७|| उस (वेन राजा के ) समय से जो कोई मोह के कारण सन्तान के लिये विधवा स्त्री का नियोग करता है उसकी साधु लोग निन्दा करते हैं (किन्तु वेन से पूर्व इस की निन्दा न थी यद्यपि ६५ से ६८ तक ४ श्लोक मनु वा भूगु के बनाये भी नहीं है। क्यो कि स्वायम्भुव मनु सृष्टि के आरम्म मे हुवे और वैन राजा वह था, जिस से पृथु हुवा तो वन के वैवस्वत मन्वन्तर होने वाले जन्म का स्वायम्भुव मनु अपने से पूर्व की भांति कैसे कह सकते कि भूतकाल में राजा बेन के राज्य समय से नियोग की परिपाटी निन्दित होगई। इस लिये निश्चय ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं।