पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५०२

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नवमाऽध्याय 40Sa तथापि इन से निगग की. धुराई वा पूर्व मनुप्रोच नियोग से परस्पर विरोध नहीं आता, किन्तु यह श्राशय निकलता है कि बेन राजा ने कामवश नियोग की स्ववर्णानुमारिणी परिपाटी को जोड़ कर एक वर्ण का दूसरे वर्ण में नियोग प्रचरित कर वर्णसङ्कर कर दिया। तब से सज्जनों में नियोग निन्दित समझा जाने लगा। ६५ का प्राशय नियोग के निरेव में नहीं है किन्तु यह है कि विवाह और नियोग भिन्न २ हैं। एक बात नहीं है। क्या कि विवाह के मन्त्रों में नियोग नहीं कहा। किन्तु वह विवाह से मिन्न प्रकरपके मन्त्रों (अथर्व ९।५।२७ ॥ २८ ॥ ५॥ १७ ॥ ८॥ १८ ! ३११ ऋ० १० ११८1८ इत्यादि)मे तो नियोग विधान है। विधवा का पुनर्विवाह विहित नहीं है। इस से नियोग का निषेध नही आचा. किन्तु पुनर्विवाह का निषेध है । ६६ का तात्पर्य भी यही है कि पहिले द्विजो का सवर्णों में. ५९ के अनुसार नियोग चला आता था, परन्तु जब राजा वेन ने एक वर्ण का दूसरे वर्ण से भी प्रचरित कर दिया, तब से यह निन्दित और पशु धर्म कहाने लगा। इस में भी सब से पुराने भाष्यकार मेधातिथि ने (द्विजै- हिविद्वदिः) के स्थान मे (द्विजैरविवादि.पाठ माना है और यह भाष्य किया है कि (येऽविद्धांसः सम्यक शास्त्र न जानन्ति) जो शास्त्र के न जानने वाले थे, उन्होंने ने पशु धर्म और निन्दित कहना आरम्भ कर दिया। ६७ वें में उसका कारण भी स्पष्ट बताया है कि क्यों यह कर्म निन्दित माना जाने लगा कि उस ने वों का सङ्कर (घोल मेल ) कर दिया। ६८ में स्पष्ट कथन है कि तब से नियोग करन वालों की निन्दा होने लगी है। अथात् वेन से पूर्व दिजों का द्विनों में सवी स्त्री पुरुषो का नियोग निन्दित न था) ॥६॥ यस्याम्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः ।