पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५०४ मनुस्मृति भाषानुवाद ये द्विजो के लिये अध्याय ३ के श्लोक १५ । १६ के अनुसार पतित कराने वाले और सवर्णा के साथ विवाहकी विवाहप्रकरणात "सवर्णी लक्षण" इत्यादि मनु की पूर्वाज्ञा के विरुद्ध हैं )11८७॥ उत्कृष्टायामिरूपाय चराय सदृशाय च । अप्राप्तामपि तां तस्मै कन्यां दबायथाविधि lll कुल आचारादिसे उच्च और सुन्दर वथा गुणों मे बराबर वर के लिये कुछ कम आयु वाली भी कन्या यथा विधि देदेवे । ८८ से आगे ४ पुस्तकों में यह श्लोक अधिक प्रक्षित है- [प्रयच्छेनग्निकां कन्यामृतुकालभयान्वितः । अतुमत्यां हि तिष्ठन्त्यामेनो दातारमृच्छति ] ऋतु काल के भय से अनूतुमती कन्या का ही दान करदे । क्योंकि ऋतुमतीके बैंठ रहने से दाता को पापचढ़ता है। कामाममरणात्तिष्टेद् गृहे कन्यतु मत्यपि । न चैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कहिचित् ॥८६॥ त्रीणि वर्षाणयुदीक्षेत कुमालमती सती ऊर्चत कालादेनस्माद्विन्देत सदृशं पतिम् ॥६०|| चाहे कन्या ऋतुवाली होकर मरने तक घर मे बैठौरहे परन्तु गुणहीन के लिये इसका कभी दानं न करे ।।८।। रजस्वला कन्या तीन वर्ष तक प्रतीक्षा करे फिर अपने वरावर गुण वाले पति को विवाह ले ||९०॥ अदीयमाना भरिमधिगच्छेवदि स्वयम् । नैनः किञ्चिदवाप्नोति न च यं साधिगच्छति || .