पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५०८

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नवमाऽध्याय ५०५ अलकारं नाददीत पिच्या कन्या स्वयंवरा । मालकं प्रावद वा स्तेना स्याधदि त हरेत् ॥१२॥ (यदि पिता आदि की) नदी हुई कन्या आप ही पति को पर ले तो कन्या को कुछ पाप नहीं और न जिस (पति) का यह ज्याही जाती है ( उसे कुछ पाप होता है) ॥१॥ परन्तु स्वयं विवाह करने वाली कन्या पिता और माता या माई का दिया हुवा आभूषण न ले यदि उसे ले तो चोर हो ॥१२॥ "पित्रे न दद्याच्छल तु कन्यामृतुमती हरन् । स हि स्वाम्यादतिकामेहतूनां प्रतिरोधनात् ॥१३॥ त्रिंशद्वपादोत्कन्यां हयां द्वादश वापिकीम । ज्यष्टव वर्षा वा धर्ने सीदति सत्वर ॥४॥" 'ऋतु पाली कन्या को हरण करता हुवा उस के पिता को शुल्क न दे। क्योकि रनों के रोकने से वह स्वामित्व से हीन हे जाता है। (धन्य! क्या विना ऋतुमती का पिता स्वामी" था '1) ॥९३तीस वर्ष का पुरुष वारह वर्षकी मनोहारिणी कन्या से विवाहको पाचौवीस वर्ष वाला वर्षवाली से करे जबकि शोत्र न करने से धर्म पीड़ित होता हो" (९३ ॥ ९४ के श्लोक इस लिये माननीय नहीं जान पड़ते हैं कि इन मे कन्या का मूल्य ऋतुमतो होने पर न देना कहा है तो क्या बिना अनुमती का विवाह हो सकता है? और क्या विना ऋतुमती का मूल्य देना ही चाहिये । बिना ऋतु के विवाह करना ९० के विरुद्ध है और मूल्य लेना ९८ के विरुद्ध है ) ॥९॥ देवदत्ता पतिर्भायो विन्दते नेच्छयात्मनः । ६४