पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५२

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प्रथमाध्याय हुया है। यह नारा प्रथम स्थान है जिसका वस्तुः इस कारण परमात्मा को नारायण कहने हैं।॥ १० ॥ जो सम्पूर्ण जगन् का उपादान और नेनादि से देखने में नहीं पाता तथा नित्य और सन् 'असन वस्तुओं का मूलभूत प्रधान (प्रकृति ) है उस महित परमात्मा लोक में 'घामा कहाता है ॥११॥ तस्निन्नएई म भगवानुपित्ता परितत्सरम् । स्वयमेवात्मनो ध्यानातदएडमफगेद्विया ॥ १२ ॥ नाम्यां न शकलाभ्यां च दिवं भूमि चनिर्ममे । मध्ये व्योमदिशश्चाप्टावां स्थानं चशाश्वतम् ॥१३॥ अर्थ- राम परिखमरमंचक काल पर्यन्त स्थित होकर, उस परमात्मा ने आपही प्रपन ध्यान से उस अण्डे के दी (झल्पित) टुकड़े किये। (कन्म के समय का १७ व भाग परिवत्मर जानो। जिस प्रकार १०० वर्ष की सामान्य श्रायु वाला मनुष्य एक वर्ष के लगभग गम में तैयार होता है. इसी प्रकार यह जगन भी अपने १०० थे काल भाग तक गर्भ के सी अवस्था में रहा )।॥ १२ ॥ उसने उन दो टुकड़ों से घृलोक और पृथ्वी, बीच में आकाश और आठ दिशा तथा जल का सनातन स्थान बनाया है।॥ १३ ॥ उद्घवात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम् । मनसश्चाप्यहकारमभिमन्तारमीश्वरम् ॥ १४ ॥ महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च । राणां ग्रीणि शनैः पञ्चेन्द्रियाणिच ॥१५॥ --और अपने स्वमूत (मिलकियत) प्रकृति से उस