पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५१८

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नवमाऽध्याय अथ पुत्रस्य पौत्रेण अध्नस्याप्नोति विष्टपम्।।१३७॥ पन्नाम्नानरकायस्मात्त्रायते पितरं सुतः । तस्मात्पुत्र इतिप्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥१३८॥ पुत्र के होने से लोकों को जीतता और पौत्र के होने से चिरकाल पर्यन्त सुख में निवास करता है। और पुत्र के पौत्र (प्रपौत्र) से तो मानों आदित्य लोक को पाता है ।।१३७॥ जिस कारण पुनाम नरक से पुत्र (सेवा करक) पिता को बचाता है इस कारण आप ही ब्रह्मानं 'पुत्र' कहा है ।।१३।। पौत्रदौहित्रयोलेकि विशेषो नोपपद्यते । दाहिनोपि यमुनं संतारयति पौत्रवत् ॥१३॥ मातुः प्रथमतः पिएडं निपेत्पत्रिकासुतः । द्वितीयं तु पितुस्तस्यास्तृतीयं तपितुः पितुः ॥१४० । लोकमे पौर और दौहित्र में कुछ विरोपता नहीं समझी जाती क्योकि दौहित्र भी इस (मातामह) को पौत्रवन ही परलोक पहुँचाता है ।।१३९॥ पुत्रका पुत्रि प्रथम माता का पिण्ड करे और दूमय मातामह का तीसरा मातामहके पिता का (इस प्रकार तीनों की अन्नादि से सेवा करें) ||१४०॥ उपपन्नोगुणैः सनैः पुत्रो यस्य तु दत्रिमः । स हरेव तद्रिस्थं संप्राप्ताऽप्यन्यगोत्रतः ॥११॥ गोत्र रिक्ये जनयितुर्न हरेत्रिमः क्वचित् । गोत्ररिक्यानुगः पिण्डोव्यपैति ददतः स्वधा ।।१४२॥ जिमका दत्तक पुत्र (अध्ययनादि) सम्पूर्ण गुणों से युक्त है