पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५३

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५० मनुस्मृति भाषानुवाद (जगत्का ने सङ्कल्पविकल्पात्मक मन और मन से अभिमानी सामर्थ्य वाले अहंतत्व को उत्पन्न किया ॥ १४ ॥ महान् श्रात्मा- महत्तत्व और रजः सत्व तम. और विपयों की ग्रहण करने वाली पांच इन्द्रियां शनैः ( उत्पन्न की) ॥ १५ ॥ तेषां त्ववयवान्नूक्ष्मान्यपणामप्यमितौजसाम् । सन्निवेश्यात्ममात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे ॥ १६ ॥ पन्मूर्त्यवयवाः सूक्ष्मास्तस्बेमान्याश्रयन्ति पड् । तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य मूर्ति मनीषिणः ॥ १७ ॥ घड़े बल वाले पूर्वोक्त छ ६ (५ इन्द्रियां और १ अहंकार) के सूक्ष्म अवयवों को अपनी २ मात्राी (शब्द, स्पर्श रूप, रस और गन्ध) में योजना करकं सब प्राणियों को बनाया ॥१६॥ क्योकि शरीर के सूक्ष्म छ' अवयव (अर्थात् अहंकार और पांच इन्द्रियों से पांच महाभूत -६) सब कार्यों के हेतुरूप होकर उस परमात्मा के आश्रय में रहते हैं इस कारण उस ज्ञानस्वरूप परमात्मा के रचित (मूर्ति) जगत् को उसका शरीर कहते हैं । (यद्यपि पर- मात्मा निराकार शरीर रहित है-यह वेदों का सिद्धान्त है और पूर्व छटे श्लोक में यहां मनुजी ने भी उसे अव्यक्त) निराकार इन्द्रिया-तीत कहा है । परन्तु कल्पना की रीति से जैसे शरीर में जीवात्मा रहता है वैसे शरीर में परमात्मा रहता है। इस एकदेशीय दृष्टान्त से इस सारे जगत् को परमात्मा का शरीर कल्पित कर लिया जाता है। वेदों में इस प्रकार के अलङ्कार की शैली बहुत आई है ) ॥ १७ ॥ बदाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मभिः । मनश्चावयवाः सूक्ष्मैः सर्वभूनकदव्ययम् ॥ १८