पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५२२

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नवमाध्याय ५१९ "शूब को समान जाति ही की भार्या कही है दूसरे वर्ण की नहीं कही। उस शूद्र मे यदि १०० पुत्र भी उत्पन्न हों तो भी समान अंश वाले ही हो ॥१५॥ जो मनुष्यो के द्वारश पुत्र स्वायम्भुव मनुने कहे हैं उनमें छः बन्धुदायाद हैं और छ.अदायाद वान्धव हैं।" (१४८ से १५८ तक ११ श्लोक भी हमारी सम्मति में अमान्य है। क्योंकि यथार्थ मे मनु की आज्ञा से द्विजो को सवर्णा से ही विवाह कहा है। श्रसवर्ण से विवाह करने पर पतित हो जावे हैं। तब ब्राह्मणत्वादि द्विजत्व ही नहीं रहता। १४८ में इन अस- वर्णाश्रो के दाय भाग की प्रस्तावना है । १४९ से १५४ तक ब्राह्मण की ४ स्त्रियों के जो चारों घणों में से एक २ हों पुत्रो का दायभाग है। फिर १५५ मे शूद्रा पुत्र को दायभागित्व का निषेध करके ये अमान्य श्लोक आपस मे भी लड़ते हैं। तथा ब्राह्मण की चारों वर्ण की ४ स्त्रियों के पुत्रों का तो वर्णन किया परन्तु क्षत्रिय की ३वर्ण को ३ स्त्रियो और वैश्य की र वर्ण की २ स्त्रियों के पुत्र कारमकोर ही रक्खे हैं । १५८ वा स्पष्ट ही अन्य कृत है जो इन अपने से पूर्वले १० केभी अन्धकृत होने की पुष्टि करता है।१५८।" औरसः क्षेत्रनश्चैव दत्तः कृत्रिमएव च । गहोस्पयोऽपविद्धश्च दायादावान्धवाश्च षट् ॥१५६।। कानीनश्च सहोदय क्रीतः पौनर्भवस्तथा । स्वयंदत्तश्च शौद्रश्च पडदायादवान्धवाः ॥१६०॥ औरस. क्षेत्रज, दत्तक, कृत्रिम, गूढोत्पन्न, अपविद्ध ये छ. धन के भागी वान्धव हैं ।।१५९॥ कानीन, सहोद, क्रीत, पौनर्भय, खयंदत्त और शौढ़ ये छः धन के भागो नहीं किन्तु केवल थान्धव