पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५२८

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नवमाऽध्याय ५२५ . । न सहोदर भाई न पिता धन को लेने वाले हैं, किन्तु पुत्र ही धन के होने वाले है, परन्तु अपुत्र का धन पिता और भाई ले लेवें ॥१८॥ पित्रादि तीनो को जल और पिण्ड ( भोजन) देवे चौथा पिण्ड वा उदक का देने वाला है। पांचचे का यहां (संवादि चार्य में ) सम्बन्ध ही नहीं हो सकता। (१८६ से आगे यह श्लोक केवल एक पुस्तक में ही मिलता है अनुमान है कि अन्यो में से जाता रहा [अमुतास्तु पितुः पत्न्यः समानांशाःप्रकीर्शिताः । ' पितामहाश्च ता. सर्वा मातृकल्पाः प्रकीर्तिताः ॥] अर्थात् अपने पिता की जो अन्य अपुत्र भार्या (अपनी मौसी) हों वे सब समान अंशको भागिनी हैं और पिनामही भी । यह सब (माताके समान ही कही हैं ) ॥१८॥ । अनन्तरः सपिण्ड.यास्तस्य तस्य धनं मवेन् । अतऊवं समुल्यः स्यादाचार्यः शिष्यएवबा ॥१८७॥ सर्वेपामप्यभावे तु ब्रामणा रिक्थमागिनः । विद्याः शुचयो दान्तास्तथा धर्मो न हीयते ॥१८८ सपिण्डा,मे जो २ बहुत समीपी हो, उस २ का धन हो और इस के उपरान्त (सपिण्ड न हो वो) आचार्य, इस के अनन्तर शिष्य धन का भागी हो ॥१८॥ और यदि ये भी न हो तो उस धन के भागी ब्राह्मण हैं। वे ब्राह्मण वेदत्रय के जानने वाले और पवित्र तथा जितेन्द्रिय हो तो धर्म नष्ट नहीं होता ।।१८८।। प्रहार्य ब्राझखद्रव्यं राज्ञा नित्यमितिस्थितिः । इतरेषां तु वर्णानां सर्वाभावे हरेन्नृपः ॥१८॥ 2 -