पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथमाध्याय ५१ तेपामिदं तु सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम् । सूक्ष्माम्योतिमात्राम्यामभवत्यव्ययाव्ययम्॥१६॥ अर्थ - ५ महाभूत और मन जो सब का कर्ता और (अन्यों की अपेक्षा) अविनाशी है ये ६ सय पूर्वोक्त जगदपी शरीर मे अपने र कामों और सूक्ष्म अवयवों सहित प्रविष्ट होते हैं ॥ १८ ॥ पूर्वोक्त सात पुरुष (जगदुरूप पुर में रहने वाले १ अहङ्कार २ महत्तत्व और आकाशादि ५ पांच इस प्रकार ७ सात ) जो कि बडे सामयं वाले हैं इनकी सूक्ष्म मूर्ति मात्राओ (पंचतन्मात्रामओ) से अविनाशी परमात्मा नाशवान जगन् को उत्पन्न किया करता है ।।१९।। आधाघस्य गुणं त्वेपामवाप्नोति पर परः । यो यो यावतियश्चेषां स स तावद्गुणः स्मृतमा२०॥ मर्षेपो तुम नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् । वेदशब्देश्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ॥२१॥ इन (पञ्चमहाभूतों) में से पूर्व २ के गुण का परला २ प्राप्त होता है (आकाश का गुण शब्द्ध परले वायु मे व्याम हुआ। ऐमे ही वायु का स्पर्श अग्नि में अग्नि का रूप जल में, जल का रस पृथ्वी में इसी से पृथ्वी के शब्द्ध म्पर्श रूप रस गन्ध ५ गुण है) इन में जोर जितना सख्या वाला है यह २ उतने २ गुण वाला कहलाता है ॥२०॥ उस (परमात्मा) ने सृष्टि के आरम्भ में उन सब के पृथक् २ नाम और कर्म और व्यवस्था वेद शब्दों से रची IRNI कर्मात्मनां च देवानां सा सृजत्प्राणिनां प्रभुः । साध्यानां च गणं सूक्ष्मं यज्ञ चैव मनातनम् ॥२२॥