पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५३१

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५२८ मनुस्मृति भापानुषाद ननिहरि स्त्रियः कुयुः कुटुम्बाबहुमध्यगाद । सकादपि च वित्ताद्धि स्वस्य मनु नाज्ञया ॥१६॥ पत्यो जीवति यः स्त्रीभिरलङ्कारो घृतोभवेत् । न तं भजेन्दायादा भजमानाः पतन्ति ते ॥२००। बहुत कटुम्ब के धन से स्त्रियें धनसञ्चय (कारचा) न करे और न अपने घनसे बिना पतिकी आना अलङ्कार आदि (कारचा) करे ॥१९९॥ पति के जीवने हुए :(उसकी सम्मति से ) जो कुछ - अलङ्कार स्त्रियो ने धारण किया हो उसको (पतिके मरने पर) नयाद लोग न वांटे। जो उसको बांटते हैं वे पतित होते हैं ।।२००॥ अनंशौ क्लबपतिनो जात्यन्धपधिरी तथा । उन्मजन्मकाश्च ये च केथिभिरिन्द्रियाः ॥२०१॥ सर्वेषामपितु न्याय्यं दातुं शक्या मनीपिणा । प्रासाच्छादनमत्यन्तं पाततो बददभवेत् ।।२०२॥ नपुंसक पतित, जन्मान्ध, बधिर, उन्मत्त, जड़, मूक और जो कोई जन्म से निरिन्द्रिय होरेसन (पिता के धन के) भागी नही हैं ।।२०१। इन सब (नपुंसकादि) को आयु पर्यन्त न्याय से अन्न वस्त्र यथाशक्ति शास्त्र के जानने वाले धन स्वामी को देना चाहिये यदिन देवे तो पतित हो ॥२०॥ यद्यर्थितातु दारैः स्यात्क्लीवादीनां कथञ्चन । तेषामुत्पन्नतन्तूनामपत्यं दायमहति ॥२०॥ यत्किञ्चित्पितरि प्रेते धनं ज्येष्ठोऽधिगच्छति । भागा यबोयसांतत्र यदि विद्यानुपालितः ॥२०४॥