पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५३८

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नयमादाय कृतं तद्धमता विद्यान्न तद्भया निवनयेन् ॥२३३॥ जहां कही ऋणाऽदानादि व्यवहार (मुकद्दमे) का न्याय से अन्त तक निर्णय और दण्डादि नक ठीक हो गया हो, ना उनको फिर से न लौटावे ॥ (२३३ से प्रागे एक श्लोक मिलता है जो कि कंचन भयो पुस्तकों में पाया गया है। परन्तु यथार्थम उमीकी यहाँ आवश्यक्ता थी। वह यह है [वीरितं चानुशिष्टं च यो मन्येन् विकर्मणा । द्विगुणं दण्डमाथाय नका यं पुनन्द्धग्न् । यदि कोई कार्य (मुम्हमा) निति हो चुका हो और दण्ड भी हो चुका हो परन्तु गजा की समझ में अन्याय हवामी नो द्विगुण दण्ड (गजकर्मचारी पर, का उम कार्य का गना गिर से - अमात्याः प्राविवाका वा यत्कुयु कार्यमन्यया । उत्स्वयंनृपतिः कुर्यात्तान्महम' च दण्डयत् ॥२३४॥ मन्त्री अथवा मुकदमा करने वाला जिस मुकदमे को अन्यथा कर इस मुकदमे का राजा पार करें और उनको "सहन्न" दण्ड देवे ॥३४॥ ब्रमहा च सुरापच स्तयी च गुरुनल्पगः । एते सर्वे पृथक्जेया महापानकिनो नराः ॥२३५॥ चतुर्णामपि चैतपां प्रायश्चिचमकुर्वताम् । शरीरं धनसंयुक्तं दण्डं धर्म्य प्रकल्पयेत् ॥२३६॥