पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५४०

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नवमाऽध्याय . है किन्तु "उत्तम साइस" के दण्ड योग्य हैं ।।२४०॥ आगाम बामणस्यैव कार्यो मध्यमसाहसः । विवास्यावा भवेद्गाष्ट्रात्सद्न्यः सपरिच्छदः ॥२४१॥ इतरे कृतवन्तस्तु. पापान्येतान्य कामतः । सर्वस्वहारमर्हन्ति कामतस्तु प्रवासनम् ॥२४२॥ इन अपराधों में ब्राह्मणो को ही "मध्यम साहस" दण्ड करना चाहिये अथवा धन धान्यादि के सहित राज्य से निकाल देने योग्य है ।।२४१॥ ब्राह्मए से अन्य (क्षत्रियादि) ने यदि इन पापो को अनिच्छा से किया हो तो सर्वस्व हरण योग्य है और यदि इच्छा से किया हो तो देश से निकालके योग्य हैं ।।२४२॥ ना ददीव नृपः साधुर्महापातकिनो धनम् । श्राददानस्तु ताप्लोमारेन दोषण लिप्यते ॥२४॥ अप्सु प्रवेश्य तं दण्डं वरुणायोपपादयेत् । श्रुतवृत्ोपपन्ने वा ब्राह्मणे प्रतिपादयेत् ॥२४॥ धार्मिक राजा महापातकी के धन को ग्रहण न करे. लोभ से उसको लेवा हुआ उस पाप से लिप्त होता है ॥२४३॥ किन्तु उस दण्ड धन को पानी में घलवाकर वरुण के यज्ञमे लगा देवे अथवा वेद सम्पन्न ब्राह्मण को दे देवे ॥२४॥ ईशोदण्डस्य वरुणो राज्ञां दण्डधरोहि सः | ईशः सर्वस्य जगतो बामणो वेदपारगः ॥२४॥ यत्र वर्जयते राजा पापकृदयो धनागमम् । तत्र कालेन जायन्ते मानवा दीर्वजीविनः ॥२४६।। ६८