पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५४४

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नवमाऽध्याय (ग) आर्य वेप धारण करने वाले अनायों को भी (राजा) जानता रहे ॥२६॥ ' तान्विदित्वा सुचरितग टैस्तत्कर्मकारिभिः । चारैथानेक संस्थान प्रोत्साद्य वशमानयेत् ।।२६१॥ तेषां दोपानभिख्याध्य स्वेस्वे कर्मणि तच्चतः । कुर्वीत शासनं राजा सम्यक्सारापराधतः ॥२६२॥ उन पूर्वोक्त वञ्चकों को सभ्य, गुम, प्रकट मे उस काम को करने वाले तथा काई जगह रहने वाले चारों (जासूसो) के द्वारा राजा चौरादि में प्रवृत्त कराकर (सजा देकर) वश करे ॥२६१।। उन प्रकाश और अप्रकाश तस्करों के उन २ चौर्यादि देोपो को ठीक २ प्रकट करके उनके धन शरीरादि सामर्थ्य और अपराध के अनुसार राजा सभ्यक दण्ड देवे ॥२६॥ नहि दण्डाडते शक्यः कतु पापविनिग्रहः । स्तेनानां पापबुद्धिनां निभृतं चरवां विती ॥२६॥ समाप्रपापूपशाला वेशमधामविक्रयाः । चतुष्पथाश्चैत्यवृक्षा, समाजाप्रक्षणानि च ॥२६॥ -पृथ्वी में विनीत वेप करके रहने वाले पापाचरणबुद्धि चारों को दण्ड के अतिरिक्त पाप का निग्रह नहीं हो सकता IR६३|| सभा, प्याऊ, हलवाई की दूकान, रण्डी का मकान, कलाली, अनाज विकने की जगह, चौराहे, घडे और प्रसिद्ध वृक्ष जन समूहों के स्थान तथा तमाशे देखने की जगह ।।२६४॥ जीर्णोधानान्यरण्यानि कारकावेशनानि च । शून्यानि चाप्यगाराणि बनान्युपवनानि च ।२६५॥