पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५५०

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नवमाऽध्याय . . एतेनैव तु कर्माणि वान्तः श्चान्तः पुनः पुनः। कर्माण्यारभमाणं तु पुरुष श्रीनिषेवते ॥ परन्तु यह सर्वथा असंबद्धसा है। इसी का बीचमे कोई प्रसङ्ग समझ में नहीं आता किन्तु इसी आशय का आगे ३०० वां श्लोक है सो पड़ी डील है ) ॥२८॥ अमिचारेषु सर्वेषु कर्तव्यो द्विशतो दमः। - मूलकर्मणि चानाप्नेः कृत्यास विविघासु च ॥२०॥ सम्पूर्ण अभिचारो (मारणादिमे यदि जिसका मारना चाहाही बह मरे नही और नाना प्रकार के (औषवादि द्वारा) उच्चाटनादि मे देसौ पण दण्ड होना चाहिये ॥२९॥ अबीजविक्रयी व बीजोत्कृष्ट तथैव च ! मर्यादामेदकश्चैव विकृतं प्राप्नुपाद्वयम् ॥२६॥ सकएटकशाविष्ठ हेमकारं तु पार्थिव । प्रवर्गमानमन्याये छेदयेल्लरशः पुरै. ॥२६२॥ थोये वीज को बेचने वाला, उसी प्रकार अच्छे वीज को बुरे के साथ मिला कर बेचने वाला तथा सीमा (मर्यादा) का नोडने बाला, विकृत वध को प्राप्त हो ॥२९॥ सब ठगों में अतिशय ठग अन्याय में चलने वाले सुनार को तो राजा चाकुमा से चोटी बोटी कटवावे ॥२९२|| सौनाद्रव्यापहरणे शस्त्रासामोपत्रस्य च । कालमासाधकार्य च राजा दण्डं प्रकल्पयेत् ॥२६॥ स्वाम्पमात्यो पुरं राष्ट्र काशदण्डौ मुहत्या । 1