पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५५१

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५४८ मनुस्मृति मापानुवाद सप्तप्रकतयोह्य तासप्ताङ्ग गज्यमुपते ॥२६४॥ हल कुदाल आदि और शस्त्रों तथा दवाके चुराने समय और किये हुवे अपराध को विचार कर राजा दण्ड नियत करे ।।२९३।। राजा, मन्त्री, पुर, राष्ट्रकोश, दंड और मित्र ये सात प्रकृति राज्य के स.Iverती हैं ।।२९४॥ सप्तानां प्रकृतीनां तु राज्यस्यासां यथाक्रमम् । पूर्व पूर्व गुरुतरं जानीयाद्व्यसनं महत् ।।२६५॥ सप्ताङ्गस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत् । अन्योन्यगुणनैशेष्यान्न किञ्चिदतिरिच्यते ॥२६६ । राज्य की इन सात प्रकृतियो मे क्रम से पहली २ को अतिशय बडा भारी न्यसन (उत्तरोत्तर एक से एक को अधिक) विगड़ने पर बुरा जाने ।।२९५|| जैसे तीन दण्ड परस्पर एक दूसरे के सहारे ठहरे हो ऐसे ही यह सम्मान राज्य ७ प्रकृतियो मे एक दूसरे के सहारे ठहरा है। इन सातों में अपने २ गुण की विशेषता से कोई भी एक दूसरे से अधिक नहीं है (अर्थात् यद्यपि पूर्व श्लोक मे एकसे दूसरे को अधिक कहा था परन्तु पूर्व २ इस भूल मे भी न रहे कि अगले अगले हमारा कुछ कर ही नहीं सकते) ।।२९६।। तेषु तप तु कृत्येषु तत्तदङ्ग विशिष्यते । येन यत्साध्यते कार्य वचस्मिन्श्रेष्ठमुच्यते ॥२६७। चारेणोत्साहयोगेन क्रिययैव च कर्मणाम् । स्वशक्ति परशक्तिं च नित्य विद्यान्महीपतिः ॥२६८|| उन २ कामोमे वही २ अङ्ग बड़ा है जिसरसे जोर काम सिद्ध होता है वह उसमें अएकहाता है ।।२९७॥ (सप्तमाध्याय में महे)