पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५५३

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मनुस्मृति भाषानुवाद वार्षिकांश्चतुरो मासान्यथेन्द्रोऽभिप्रवर्षति । तथामिवर्षेत्राष्ट्र कामैरिन्द्रव्रतं चरन् ॥३०४॥ इन्द्र, सूर्य, वायु यम. घरुण चन्द्र अग्नि और पृथिवी के सामर्थ्यरूप कर्म को राजा करे ।।३०३३ वर्षा ऋतु के चार मास में इन्द्र (वायुविशेष) वर्षा करता है वैसे ही इन्द्र के काम को करता हुभा राजा स्वदेश मे (इच्छित पदार्थों को) वर्षावे ॥३०॥ अष्टौमासान्पथादित्यस्तायहरति रश्मिभिः । तथा हरेत्करराष्ट्राभित्यमर्कवतं हि तत् ॥३०॥ प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः । तथा पारे प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद्धि मारुतम् ॥३०६॥ आठ महीने जैसे सूर्य किरणो से जल लेता है वैसे (राजा) राज्य से कर लेवे यही नित्य सूर्य का काम है ।।३०५।। जैसे वायु सब मनुष्यादि में प्रविष्ट रहता है वैसे ही राजा दूतो द्वारा सब मे प्रवेश करे (अर्थात् सबके चित्तवृत्तान्त ज्ञात करलेबे) यही वायु का काम है ।।३०६॥ यथायम- प्रियोऽयो प्राप्तेकाले नियच्छति । तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद्धि यमवतम्।।३०७|| वरुणेन यथा पाशैर्बद्ध एवाभिदृश्यते । तथा पापानिगृहीयाद् व्रतमेतद्धि वारुणम् ॥३०८|| जैसे यम (मृत्यु वा परमात्मा) प्रातकाल मे मित्र शत्रु सबका निग्रह करता है वैसे ही राजा को अपराध काल में प्रजा दण्डनीय होनी चाहिये । यम का यही प्रत है ।।३०४ा जैसे वरुख (वायु- विशेष) के पाशो से प्राणी बंधे हुवे देखे जाते हैं वैसे ही राजा