पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५५५

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। ५५२ मनुस्मृति भापानुवाद (कशिक्षयादि) बड़ी विपत्ति को प्राप्त हुवा भी राजा ब्राह्मणो को कष्ट न करे क्योकि वे क्रुद्ध हुवे सेना, हाथी, घोड़ा आदि सहित इस गजा कोशीघ्र नष्ट कर सकते हैं (दीर्घदृष्टि से विचारा जावे तो निसन्देह विधा और विद्वानों के विरोधी का राज बहुत दिनतक नहीं रह सकता) ॥३१॥ जिन्होंने अग्नि को सर्वभक्षी और समुद्र को खारा कर दिया और क्षयी चन्द्र का प्राध्यापित किया उनको नष्ट करके कौन नाश को प्राप्त न होगा ॥३१४।। "लोकानन्यान्सजेयुयें लोकपालांच कोपिता । देवान्कुर्युरदेवांश्च कक्षिण्वंस्तान्समृध्नुयात् ।।३१५|| यानुपाश्रित्य तिष्ठन्ति लोका देवाश्च सर्वदा । ब्रह्म चैव धनं येषां को हिंस्याचामजिजीयिपु ||३१६॥' 'जो कोप को प्राप्त हुवे दूसरे लोको को उत्पन्न कर दे, ऐसी सम्भावना है। और देवतो को अदेव करदें तव उनका पीडा देता हुवा कौन वृद्धि को प्राप्त हेगा ? ||३१५॥ जिनका आश्रय करके सर्वदा देव तथा लोक ठहरे हैं और वेद है धन जिन का उनको जीने की इच्छा करने वाला कौन दुखी करेगा ॥३१६॥' "अविद्वांश्चैव विवंच ब्राझणाडेववं महत् । प्रणीतश्चाऽप्रणीतश्च यथाऽग्निर्दैवतं महत् ।।३१७॥ श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति । हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते ॥३१८॥ "जैसे अग्नि प्रणीव हो वा अप्रणीत हो-महती देवता है. ऐसेही मूर्ख ब्राह्मण हो वा विद्वान हो-महती देवताहै ॥३१७॥ तेज वाला अग्नि श्मशानो मे भी (शव को जलाता हुवा) दोषयुक्त नहीं होता, किन्तु फिरसे यज्ञमे हवन कियाहुवा वृद्धिका पाताहै ॥३१८॥"