पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५५६

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नवमाऽन्याय ५५३ 'एवं यद्यष्यनिष्ठेषु वर्वन्ने सर्वकर्मसु । सर्वथा बामणाः पूज्याः परमं देवतं हि तत् ॥३१९।।" "यद्यपि इस प्रकार समूर्ण कुत्सित कमों में रहते हैं तथापि प्राह्मण सर्व प्रकार से पूजन योग्य हैं, क्योंकि वे महती देवता हैं।' (३१४ से ३१९ तक ६ श्लोक ब्राह्मणों की असम्भव प्रशसा से युक्त हैं क्योकि अग्नि को सर्वभक्षी और समुद्र को अपेय (खारा) बामणो ने नहीं किन्तु प्रथमाध्याय के अनुसार परमात्मा ने ही इन को अपने २ स्वभावयुक्त बनाश है। और चन्द्रमा की शय वृद्धि भी सूर्य के प्रकाश पहुंचने मे विलक्षणता के कारण होती है। यह विषय निरुक्तादिके प्रमाण पूर्वक हमने साम वेह भाज्य में लिम्बा है। ब्रामणो का नवीन सृष्टि बना सकना भी कितनी प्रयुक्ति नहीं वरन असंभव है। अविद्वान् को ब्राह्मण और पूज्य मानना भी पक्षपात पूर्वक लेख तथा यथाकाष्ठमयोहस्ति इत्यादि पूर्वोक्त मनु वचचों से विरुद्ध है । यज्ञ में शूद्र के घर का अग्नि भी वर्जित है, तब श्मशान (चिता) के अग्नि का निर्दोष मानना और उस प्रशान्त से कुकर्मी ब्रामण का भी निर्दोष सिद्ध करना पूर्वोक्त अनेक मनु वचनों के साक्षात् विरुद्ध है) ॥३१९।। क्षत्रस्यानिवृद्धस्य ब्रामणान्यति सर्वशः । अनव संनियन्त स्यात्क्षत्रं हि वनसंभवम् ॥३२०॥ ब्रामणों के सर्वथा पीडा देने में प्रवृत क्षत्रियों को ब्राह्मण ही अच्छी प्रकार निगम में रक्खे क्योकि क्षत्रिय बामणो से (संस्कार के जन्म से) उत्पन्न हैं ॥३२० अद्याग्नि बनाक्षत्रमश्मना लोहमुत्थिाम् । तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ॥३२१॥