पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५५७

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५५४ मनुस्मृति भाषानुवाद नाऽननक्षत्रमध्नाति नाक्षत्रं ब्रजवर्धते । ब्रमक्षत्रं च संयुक्तमिह चामुत्रवधते ॥३२२|| जल ब्राह्मण और पाषाण से उत्पन्न हुने क्रम से अग्नि. क्षत्रिय और शत्रो का तेज सब जगह तीव्रता करता है, परन्तु अपने उत्पन्न करने वाले कारणो मे शान्त हो जाता है ॥३२१॥ ब्राह्मण रहित क्षत्रिय वृद्धि को प्राप्त नहीं होता वैसे ही क्षत्रिय रहित ब्राह्मण भी वृद्धि को नही प्राप्त होता । इसलिये ब्राह्मण क्षत्रिय मिले हुवे इस लोक तथा परलोक में वृद्धि को पाते है ।।३२२|| दत्वा धनंतु विनम्यः सर्वदण्डसमुत्थितम् । पत्रे राज्यं समासृज्य कुर्वीत पारणं रणे ॥३२३॥ एवं चरन्सदा युक्तो राजधर्मेषु पार्थिवः । हितेषु चैव लोकस्य सर्वान्भृत्या भयोजयेत् ॥३२४|| दण्ड का सम्पूर्ण धन ब्राह्मणो को देकर और पुत्र को राज्य समर्पण करके राजा रण मे प्राण त्याग करे ॥३२३॥ राजधर्म मे सदा युक्त रह कर इस प्रकार आचरण करता हुवा राजा सब लोगोके हित के लिये सम्पूर्ण नौकर चाकरो की योजना करे ।३२४॥ एपोखिलः कर्मविधिरक्तोराज्ञः सनात · । इमं कर्मविधि विधात्क्रमशो वैश्यशूद्रयोः ॥३२५ । वैश्यस्तु कृतसंस्कारः कृत्या दारपरिग्रहम् । वार्चायां नित्ययुक्तास्यात्पशूनां चैव रक्षणे ॥३२६।। यह राजा का सम्पूर्ण सनात न कर्मविधि कहा। अब (आगे कहा) यह वैश्य शूबो का कर्म विधि जाने ॥३२५ ।। उपनयनादि