पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५५८

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नवमाध्याय ५५५ संस्कार किया हुवा वैश्य विवाह करके व्यापार तथा पमुपालन में सदा युक्त होवे ।।३२६ ॥ प्रजापतिहि वैश्याय दृष्ट्वा परिददे पशून् । वालणाय च राजे च सर्वाःपरिददे प्रजाः ॥३२७॥ न च वैश्यस्य कामास्यान्न रक्षेयं पशृनिति ।। वैश्यच्छनि नाऽन्येन रनितव्याः कथञ्चन।।३२८॥ क्योंकि ब्रह्मा ने पशु प्यन्न करके (रक्षा के लिये ) वैश्य को देदिय और प्राण नथा राजा का मन प्रजा (रचा के लिये ) देनी हैं।। ३२७ ॥ मैं पशुओं की रक्षा नहीं कह ऐमी वैश्य की इच्छा न शनी चाहिये और वैश्य के चाहने हुने दूसरे का पशु पालन वृत्ति कभी न करनी चाहिये ।। २२८॥ मणिमुक्ताप्रबालानां लौहानां तान्तवस्य च । गन्धानां च रसानां च विवादबलावलम् ॥३२६।। बीजानामुप्तित्रिच्च स्यात्क्षेत्रदोषगुणस्य च | मानयोगच जानीयात लायोगांच सर्वशः ॥३३०॥ मणि मोती मूला लाहा और काडा तथा कपू राहि गन्ध और लवणादि रसो का घटी बढी का भाव वैश्य जान ।। ३२५ ।। सब चीजों के होने की विधि और बेत के गुण देप और सब प्रकारक नाप तोल का भी जानने वाला (वैश्य) हो ।। ३३० ।। सारासार च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान् । लामालामं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम् ।।३३१॥ भृत्यानां च भृति विद्याभदापाच विविधानृणाम् । द्रव्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयमेव च ॥३३२॥