पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५५९

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५५६ मनुस्मृति भापानुवाद अन्नके अच्छे बुरे हा हा.स और देशोमे सस्ते महगे आदि गुण अवगुण का भाव और विक्री के 'लाभ हानि का वृत्तान्त तथा पशुओं के बढ़ने का उपाय (जाने) ॥३३१।। और नौकरों के वेतनो तथा नाना देश के मनुष्यों की बोली और माल के रखने की विधि तथा बेचने खरीदने का डन (वैश्यको जानना चाहिये।३३२ धर्मश च द्रव्यद्धावातिष्ठेघनमुत्तमम् । दाच सर्वभूतानामन्नमेव प्रयत्नतः ॥३३३॥ विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम् । शुश्रुपैव तु शूद्रस्य धर्म नैश्रेयसः परः ॥३३४।। (वैश्य) घमे से धन के वढाने मे पूरा यत्न करे और सब प्राणियों को यत्न से अन्न अवश्य पहुंचावे ॥३३शा वेद के जानने वाले विद्वान् गृहस्थ यशाम्बी ब्राह्मणादि की सेवा ही शूद्र क परम सुखदायी धर्म है ।।३३४॥ शुचिरुत्कृष्टश्रुपम दुवाग नहंकृतः । बामणाघाश्रयो नित्यमुत्कष्टां जातिमश्नुते ॥३३५।। एपौनापहि वर्णानामुचः कर्मविधिाशुभः । आपद्यपि हि यस्तेषां क्रमशस् नियोधन ॥३३६॥ स्वच्छ रहने वाला अच्छा मेहनती और नम्रतासे बोलने वाला तथा अहकाररहित नित्य ब्राह्मणादि की सेवा करने वाला शूद्र उच्च जातिको प्राप्त हो जाता है ।।३३५।। यह वर्षों का आपत्ति रहित समय में शुभ कर्म विधि कहा, अब जो उनका कर्म विधि है (दशमाध्याय मे) उसको सुनो ॥३३६॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे (भृगुप्रोक्तायां संहितायां ) नवमोऽध्यायः ॥