पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५६

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प्रचनाऽध्याय अराध्या मात्राविनाशिन्या दशा मां तु याः मनाः । नामः सामिदं गर्व संभवत्यनुपूर्वशः ॥२७॥ यंत कर्मगि यस्मिन्म त्ययुक्त प्रथम प्रभुः । स नदेय स्वयं मे सृज्यमानः पुनः पुनः ॥२८॥ सूक्ष्म जोश की प्राची (पांच) विनामिनी तन्मात्रा (शब्द स्परा रूप रस गन्ध) कहा है उन के नाम यह सम्पूर्ण सृष्टि के क्रमशः उत्पन है ROIL उम मनु ने नाम के आदि में जिम सामाविक कर्म में जिम को योजना की उमन पुन २ जब उत्पन्न हुवा वयं यदी स्वाभाविक कम अपने श्राप किया ||Pall हिमाहिम मृदुक्र र धर्माधर्मानानृतं । यद्यस्य मा देवान्मर्गे नतम्य म्पयमाविशेन ।॥ २६ ॥ यलिशान्यतयः स्वयमेवन पर्यो । स्थानिधान्यभिपद्यन्ने नया कर्माणि देहिनः ॥ ३० ॥ हिंस-अहिंस कर्म, मृदु ( दयाप्रधान) कर, धर्म धृत्यादि, प्रधर्म मच श्रमन्य जिन का जो कुछ (पर क्त्पी)म्बय प्रविष्ट था. यह यह उमर का मुष्टि के समय उसने धारण कगया IFRI जैन धमन्न प्रादि अनुवे अपने २ नमय में निज २ अनु निन्दा को प्राप्त होते हैं. उसी प्रकार मनुष्यादि भी अपने कर्मों का पूर्वकल्प के वचं कर्मानुलार प्राप्त हो जाते हैं ॥३॥ लोकानान्तु विवृद्धवथं मुग्ववाहम्पादतः । बामणं चात्रियं श्यं शूद्रच निवर्तयन् ।। ३१ ॥ द्विधा कृन्वात्मना देहमर्धेन पुम्पोऽभवन् । अधेन नाग तस्यां स विराजममृजत्प्रभुः ॥ ३२ ॥