पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५७

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मनुस्मृति भाषानुवाद लोकों की वृद्धि के लिये मुख ब्राह्मण वाहू क्षत्रिय, उरू वैश्य, पाद शूट (इस क्रम से सृष्टि कर्ता ने) उत्पन्न किये ॥३१॥ उस प्रभु ने अपने जगत् रूपी शरीर के दो भाग किये, अर्द्ध भाग से पुरुप और अर्द्ध माग से स्त्री हुई, उस स्त्री में विराह ( सारे जगत् को एक पुरुष रूप में) उत्पन्न किया ||३२|| (यहां सब जगन को एक पुरुष माना है। जिस मे अर्धभाग स्त्रीपने का और अर्ध पुरुषपन का है। मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और पृथिव्यादि लोक इत्यादि सव में स्त्री भाव और पुरुष भाव है) तपस्तप्त्वासृजय तु स स्वयं पुरुषो विराट् । तं मां वित्तास्य सर्वस्य स्रष्टारं द्विजसत्तमाः ॥३३॥ महं प्राः सिसवस्तु सपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् । पतीन्प्रजानामसज महपीनादितो दश ॥३४॥ हे द्विजश्रेष्ठो । उसी विराट पुरुप ने तप करके जिस को उत्पन्न किया वह सब का उत्पन्न करने वाला मुझे जानो ॥ ३३ ॥ मैने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से उग्र तप करके प्रजा के पति दश १० महर्षियों को प्रथम उत्पन्न किया ॥ ३४ ॥ "मरीचिमन्यङ्गरिसो पुलस्त्यं पुलई ऋतुम् । प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगु नारदमेव च ॥ ३५ ॥ एते मनस्तु सप्तान्यान-सृजन्भूस्तेिजसः । देवान्देवनिकायांश्च ब्रीश्चामतौजसः ॥ ३६॥ "(उन दश महर्षियों के नाम )मरीचि १ अनि र अङ्गिरस ३ ।