पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५६५

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मनुस्मृति भाषानुवाद , भेद से सममें) ॥२ब्राह्मणादि वणों से अन्योन्य स्त्री के गमन और सगोत्रादि अगम्या में विवाह करने तथा अपने कर्म के छोड़ने से वर्णसङ्कर उत्पन्न होते हैं ।।२४ 'संकीर्णायानयो ये तु प्रतिलोमाऽनुज्ञोमजाः । अन्योन्यव्यतिपक्ताश्च तान्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ॥२५॥ सूतोवैदेहकश्चैव चण्डालश्च नराधमः । मागधः क्षत्त जातिय तथाऽऽयोगर एव च ॥२६॥ जो संकीर्ण योनि प्रतिलोम अनुलोम के परम्पर सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं, उनको विशेष करके मैं आगे कहता हूँ ॥२५॥ सूत वैदेह चण्डाल ये अधम मनुष्य और मांगध, क्षत्ता तथा आयोगधनारा एतेषट् सदृशान्वर्णाचनयन्ति स्वयोनिपु । मातृजात्यां प्रसूयन्ते प्रवरासु च योनिषु ।२७॥ यथा त्रयाय वर्णानां द्वयोरात्माश्स्य जायते । आनन्तस्वियोन्यांतु तथावाह्य ध्वपि क्रमाव॥२८॥ ये छः स्वयोनि मे स्वतुल्य सुतोत्पत्ति करते हैं और अपने से उत्तम योनियों में जन्मे वो मान आति में गिने जाते हैं ।।२०। जैसे तीनो वणों मे दो मे से इस पुरुष का आत्मा उत्पन्न होता है और अनन्तर होने से अपनी योनि में गिना जाता है वैसे ही इन वाह्य वर्णसङ्घरों मे भी कम से आनो ||२८ ते चापि चाहान्सुबहूस्ततोऽप्यधिकदूषितान् । परस्परस्य दारेषु जनगन्ति विगर्हितान् ॥२६॥