पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५६९

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2 { ५६६ मनुस्मृति भाषानुवाद वृपलत्वं गतालोके . ब्राह्मणादर्शनेन च ॥४३॥ . पौण्डकाचौडद्रविडाः काम्बोजायवनाः शकाः । पारदापलाधीनः किराता दरदाः खशाः ४४| ये क्षत्रिय जातिये किया ताप से और (याजन अध्यापन यश्चित्ता के लिये) ब्राह्मणो के न मिलने से लोगो में धीरे २ शता को प्राप्त हो गई (जैसे - ) ॥४३॥ प्रोटिक विड, माम्बोज रवन शक, पारद, अपल्हव, चीन, किरात, दरद, और, खश ॥४४॥ मुखवाहरुपज्जानां या लोके जातो बहिः । ग्लेच्छवाचवार्य वाचः सर्वतेदस्यवः स्मृताः १४५॥ से द्विजानामपंसदा ये वापयन्सजाः स्मृताः । से निन्दितैव तपेदिजानामेव कर्मभिः ।४६ ब्राह्मण, मंत्रिय, वैश्य शूद्रो की(क्रियालोप से) अधम जानिये छ भपायुक्त वा आर्यभाषायुक्त सब 'दस्यु" कही गई है ४५|| जो पूर्व द्विजों के अनुलोम से अपसद और प्रतिलोम से अपध्वंस कहे हैं वे द्विजोंके ही निन्दित कर्मोंसे श्राजीयन करें ।४६॥ सूतानामश्वसारथ्यमम्बष्ठानां चिकित्सनम् । वैदेहकानां स्वीकार्य मागधानां वणिक्पथ १४७ रातो निपादानां त्वष्टिस्त्वायोगवस्य च । मेदान्धचुचुमद्गूनामारण्यपशुहिंसनम् .. ४८ : . सूतो का (काम) अश्व का सारथी होना, अम्बष्टो का चकि- सा वदेहो का अन्तःपुर का काम और मागधो का बनियापन,