पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५७५

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1 ५७२ मनुस्मृति भाषानुवाद । धीजमेके प्रशंसन्ति क्षेत्रमन्ये मनीषिणः । वीजक्षेत्रे तथैवान्ये तोगं तु व्यवस्थितिः ॥७०।। जैसे अच्छा बीज खेत मे बोया हुवा समृद्ध हो जाता है। वैसे ही आर्या मे आर्य से उत्पन्न हुवा सम्पूर्ण उपनयनादि संस्कार के योग्य है ।।६९ कोई विद्वान् बीन को और कोई खेत को और अन्य कोई दोनों को प्रधान कहते हैं। उनमें यह व्यवस्था है कि ||७|| अक्षेत्रे वीजमुत्सष्टमंतरेव विनश्यति । अचीजकमपि क्षेत्र केवलं स्थण्डिलं भवेत् ॥७१॥, "यस्माद्बीजप्रभावेण तिर्यग्जाभूषयोऽभवन् । पूजिताच प्रशस्ताश्च तस्मादबीनं प्रशस्यते ॥७२|| अपर मे बोया हुवा बीज भीतर ही नाश को प्राप्त हो जाता है और बीजरहित अच्छा भी खेत कोरा चौतरा ही रहेगा (इससे दोनो ही अपने २ गुण मे मुख्य हैं। यहां तक बीज और क्षेत्र को प्रधानता के विवाद में गुणकमों का वर्णन नहीं है किन्तु स्वभाव जो कि प्रायः रज वीर्य के शुद्धाऽशुद्ध होने से शुद्धाऽशुद्ध होता है उसमें ही यह विचार प्रवृत्त किया है कि दोनोमे प्रबलता किसका है। ॥७॥ बीज के माहात्म्य तिर्यग्रयोनि (अर्थात हरिणादि से उत्पन्न हुवे शृङ्गी ऋष्यादि) ऋषिव पूजन और तुति को प्राप्त हुवे । इस से बीज की प्रधानता है (प्रथम तो तिर्यग्योनि में मनुष्ययोनि उत्पन्न नहीं हो सकती । दूसरे शृङ्गी ऋष्यादि की कथायें पीछे की है। मनु उन का भूतकाल करके वर्णन नही कर सकते थे)। अनार्यमार्याकर्माणमार्य चानार्यकर्मिणम् ।