पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५७६

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वशमाऽध्याय ५७३ संप्रधाऽबीद्धाता न समौ नाऽसमाविति ।।७३|| द्विज, शूद्रोंके कर्म करने वाले और शूद्र द्विनों के कर्म करले चाले इनको ब्रह्मा ने विचार कर कहा कि न ये मम हैं न असम हैं ।। (म्योकि गुणों और स्त्रमावो के बिना केवज्ञ का मे आनर्य आर्य नहीं होसकने । और गुणों तथा स्वभावोसे युक्त पात्र केवल कहीन होनाने ने अनार्य नहीं हो सकता । श्रर्यान् मनुनी कहने है कि केवल कर्म से हम कोई व्यवस्था नहीं दे सकते ! किन्तु गुणकर्मस्वभाव सबपर दृष्टि डालकर व्यवस्थापक विद्वान्वा समा को व्यवस्था देनीचाहिये । मेवातिथि कहते हैं कि यहांवक वर्णसङ्करो की निन्दा और कमों की प्रशंसाम अर्थवाद ही है विधि वा निषेव कुछ नही ||३|| बामणा प्रयोनिस्था ये सकर्मक्यास्थिताः । ते सम्यगुपजीवेयुः पट् कर्माणि यथाक्रमम् ।।७४।। ओब्रायोनिस्थ ब्रामण हैं और अपने कमसे रहते हैं वे क्रम से अच्छे प्रकार (इन) छः कर्मों का अनुष्ठान करें ||४|| अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दान प्रतिग्रहश्चैव पट कर्माण्यग्रजन्मनः ||५|| पराणां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका । याजनाध्यापने चैव विशुद्धाश्च प्रतिग्रहः ॥७६॥ १ पढ़ना, २ पढ़ाना. ३ यन्त्र करना और ४ कराना, ५दान देना और छ लेना ब्राह्मण के ये छ. कर्म हैं ॥५॥छ कमों में से इस बामण की तीन कर्म जीविका है १ यन्त्र करना २ पढ़ना और ३ शुद्ध (द्विजातियो) से दान लेना ||७६|| +