पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५७८

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दशमाऽध्याय ब्राह्मण अपने यथोक्त का से निर्वाह न कर सकता हुवा (आपत्काल में ) क्षत्रियक धर्म से अपना आजीवन करे, क्योंकि वह इस के समीप है ॥८॥ दोनों (ब्राह्मण और क्षत्रियों की जीविकाओ) से न जी सकता हुवा कैसे जीवन करे ऐसा संशय हो वो कपि और गोरक्षा करके (ब्राह्मण) वैश्य की जीविका करे ।। वैश्यवृत्त्यापि जीवनस्तु ब्राह्मणःवत्रियोऽपिवा । हिसाणायां पराधीना कृषि यत्नेन वर्जरेत् ॥३॥ कृषिसाध्विति मन्यन्ते सोवृत्तिः सद्विगहिंसा । भूमि भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठमयोमुखम् ।।८४॥ ब्राह्मण और चनिय वैश्यवृत्ति करके जीते हुवे भी बहुत हिंसा वाली और पराधीन खेती को यल से छोड़ देवें ||३|| "खेती अच्छी है ऐसा (कोई ) कहते हैं। परन्तु यह वृत्ति सावओ से निन्दित है क्यों कि कुदाल हलादि लोहा लगा हुवा काष्ट भूमि और भूमि के रहने वाले जन्तुओं का भी नाश करता है Icell इदंतु धृत्तिवैकल्पास्यजता धर्मनैपुणम् । टिपण्यमुद्धृतोद्धारं विक्र में वित्तवर्धनम् ॥८॥ सर्वान रसानपोहेत कृतान्नं च तिलैः सह । अश्मनो लषणं चैव पशवो ये च मानुषाः ॥६॥ ब्राह्मण क्षत्रियों को अपनी वृत्ति के न होने या धर्म की यथोक्त निहा को छोड़ने हों तव वैश्य के बेचने योग्य द्रव्यों से आगे कहे हुवे को छोड़ कर धन वृद्धिकारक विक्रय करना योग्य है ।।८५|| सम्पूर्ण रसो, पकाये अनाज तिलों के सहित पत्थर, नमक और मनुष्यों के पालनीय पशु, इन को न बेचे ।८।।