पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५८०

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दुरामाऽध्याय que o [पु सीसं तथा लौह तेजमानि च सर्वशः । गालाधर्म तथा स्थानि स्नायनि च वर्जयेत् ॥] इस पर नन्दन का भाष्य मी है। अर्थ यह है कि रांग सोसा तथा लोहा और सब चमकीले धातु और बाल चमडा तथा तात लिपटी हड्डी (न येथे) । जैसा महाभाष्य में तेल, मांस विक्रय का निषेध और मरमों तथा गौ आदि के विक्रय की विधि कहीं है, वैसा ही यह है । क्यों कि अत्यन्त मलिन और पापजनक वृत्ति से घचना चाहिये ॥१०॥ मोजनाभ्यन्जनादानाद्यन्यस्कुरुते तिलैः । कृमिमृतः श्वविष्ठायां पितृभिः सह मज्जति ॥१॥ सद्यः पतति मांसेन लाक्ष्या लवणेन च । ज्यहेण शूद्रोभवति ब्राह्मणः चीरविक्रयात् ॥६२।। भाजन अभ्यञ्जन और दान के सिवाय जो कोई तिलों से और कुछ करता है वह कृमि घन कर पितरों के सहित कुत्ते की विक्षा में दूपता है ।।११।। माम लाख और लवण के बेचने से ब्राह्मण उसी समय पतित हो जाता है और दूध के घेचने से (ब्राह्मए) तीन दिन में शूदता का प्राप्त होता है ।।१२।। इतरेपो तु परयानां विक्रयादिह कामतः । बाबणः सप्तरात्रेण वैश्यभाव नियच्छति ॥३॥ रसा सैनिमातव्या नवेच लवणं रसः 1

  • यद्यपि ५ से १४ तक १० श्लोकों को पहले ४ वार छापे

में और ५ वीं बार भी सूची में प्रक्षिप्त लिखा गया. परन्तु अब विचार से वह अयुक्त आन कर बदल दिया है। तुरास्यामी