पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५८२

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दशमाऽध्याय अंकार्य को छोड़ कर और हो सके तो सर्वथा ही बचे ॥९८|| अशक्नुवंस्तुशुश्रूषां शूद्रा कर्तु द्विजन्मनाम् । पुत्रदारात्पर्य प्राप्तो जीवेकारककर्ममिः ॥६॥ यः कर्मभिः प्रचरितैः शुश्रूष्यन्ते द्विजातयः । तान कारुककर्माणि शिल्पानिविविधानि च ॥१०॥ द्विजो की शुश्र पा करने का असमर्थ शूद क्षघा से पुत्र कलत्र आदि को कष्ट प्राप्त होते हुवे कारक कमों ( सूपकारत्वादि) से जीवन करे ।।१९।। जिन प्रचरित कमों से द्विजातियो की शुभपा करते हैं उन को और नाना प्रकार के शिल्पा को भी कारक कर्म कहते हैं ॥१०॥ 'वैश्यवृत्तिमनाविष्ठन्ब्राह्मण, स्वे पथि स्थितः। अतिकर्षितः सीदनिम धर्म समाचरेत् ॥१०॥ सर्वत' प्रतिगृहीयाद् ब्राह्मणस्त्वनय गतः। पवित्रं- द्रुप्यतीत्येतद् धर्मतो नोपपद्यते ॥१०॥' 'अपने मार्ग में स्थित ब्राह्मण जीविका के न होने से पीड़ा प्राप्त हुआ वैश्यत्ति को भी न कर सके तो इस वृत्ति को करे कि.. ॥१०॥ विपत्ति को प्राप्त हुवा ब्राह्मण सब से दान ले लेवे, श्यों कि पवित्र को दोष लगना धर्म से नहीं पाया जाता ॥१०॥ 'नाध्यापनायाजनाद्वा गहितावा प्रतिप्रहात् । देोपोमवति विप्राणां ज्वलनाम्बुसमा हि ते ॥१०॥ जीवितात्ययमापनो योन्नमत्ति यतस्ततः । आकाशमिव पङ्कने न स पापेन लिप्यते ॥१०॥ ब्राह्मणों का निन्दित पढ़ाने और यज्ञ कराने तथा प्रतिग्रह से