पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५८३

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५८० मनुस्मृति मापानुवाद दोप नहीं होता, क्यो कि वे पानी तथा आग के समान हैं (दो पुस्तको मे चलनार्कसमा हि ते और एक में 'खलनार्कसमाहितः भी पाठ भेद है ) ॥१०शा जो प्राणात्यय को प्राप्त हुवा जहां तहां अन्न भोजन करता है, वह कीचड़ से आकाश के समान उम पाप से लिप्त नहीं होता ।।१०४॥ "अजीगर्नः सुतं हन्तुमुपासर्पमुक्षितः। न चालिप्यत पापेन क्षत्प्रतीकारमाचरन् ।।१०।। श्वमांसमिच्छाति धर्मा धर्न विचक्षणः । प्राणाना परिरक्षार्थ वामदेवो न लिप्तवान् ॥१०॥" अजीगत नाम ऋपि भुक्षित हुवा पुत्र को मारने चला. परन्तु क्षुधा के दूर करने का वैमा करता हुवा पाप से लिप्त नहीं हुवा ।।१०।। वामदेव धर्म अधर्म का जानने वाला क्षधा से पीड़ित हुवा प्राण की रक्षार्थ कुत्ते के मांस खाने की इच्छा करता हुवा पाप से लिप्त नहीं हुआ ॥१०६॥ "भरवाज सुधार स्तु सपुत्रो विजने बने । बल्लीः प्रतिजग्राह वृधोस्तक्ष्णो महातपाः ।।१०७|| क्षुधाश्चात्तु मभ्यागाद्विश्वामित्रः श्वजानीम् । चण्डालहस्तादावाय धर्माधर्मविचक्षणः ।।१०८॥" 'बड़े तपस्वी पुत्र के सहित निर्जन वन मे सुधा से पीड़ित हुवे भरबाज ने वृधुनामा घढई की बहुत सी गायों को प्रण किया ॥१०७॥ धर्म से अधर्म के जानने वाले विश्वामित्र ऋषि क्षधा से पीड़ित हुवे चण्डाल के हाथ से लेकर कुत्ते की जांघ का मांस खाने को तैयार हुवे। (यद्यपि १०१ से १०४ तक भी श्लोक अमान्य हैं। क्यों कि आपकाल मे भी आपद्धर्म से नीचे नहीं गिरना चाहिये और पूर्व