पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५८४

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दशमाऽध्याय मनु जी का भी आये हैं कि स्वधर्म त्याग से पतितता होती है । परन्तु यदि यहां आपत्काल का तात्पर्य प्राणसङ्कट हो अर्थान कभी देवयागमे कही ऐसा अवसर आनावे कि सर्वथा ही प्राण न बचने हो तो प्राणरक्षार्थ ये श्लोकमान्य भी समझे जामकते हैं और प्राणो को भी धर्मार्थ न्यौछावर कर देना तो बहुत ही अच्छा है। परन्तु कोई २ विद्वान जगन के महान् परक हैं। यदि वे अपने प्राणो को परोपकार बचाते हुये निषिद्ध प्रतिप्रदादि ले भी ले और इस को धर्म भी मान लिया जाये तो इस में तो सन्देह ही नहीं कि १०५ से १०८ तक के ४ श्लोक ते अवश्य ही मनुप्रोक्त वा भृगु प्रोक्त भी नहीं. जिन में मनु से पश्चात् हुवे अजीगर्व वामदेव आदि की कथा को भूत काल से वर्णन किया है ।।१०८।। प्रतिग्रहाबाजनाद्वा तथैवाध्यापनादाप। प्रविग्रह प्रत्यवरः प्रत्य विप्रस्य गहितः ॥१०॥ याजनाध्यापने नित्यं क्रियते संस्कृतात्मनाम् । प्रांतग्रहस्तु क्रियते शूद्रादप्यन्त्यजन्मन. ॥११०॥ प्रतिमह याजन अध्यापन, इन में बुरा दान लेना ब्राह्मणों को परलोक मे बहुत नीचता का हेतु है ( इस लिये याजन अध्यापन से जब तक काम चले तब तक निन्दित प्रतिग्रह न लेवे )॥१०९॥ क्यो कि याजन और अध्यापन तो उपनयनादि संस्कार वाले द्विजों ही का सर्वदा किया कराया जाता है. परन्तु प्रतिग्रह तो अन्त्य जन्म वाले शूह से भी लिया जाता है ॥११०॥ जपहामेरपत्येना याजनाध्यापनैः कृतम् । प्रतिग्रहनिमित्रं तु त्यागेन तपसैव च ॥१११॥