पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५८५

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५८० मनुस्मृति भाषानुवार शिलाञ्छमप्याददीत विप्रोऽजीवन्यतस्ततः । प्रतिग्रहाच्छिलः श्रेयांस्तताऽध प्रशस्पते ।११२॥" अर्थात् असन् याजन और अध्यापन से उत्पन्न हुआ पाप तो जप होमो से दूर हो जाता है परन्तु प्रतिमह निमित्तक पाप त्याग तथा तप से ही दूर होता है ।।११।। ब्राह्मण अपनी भूचि से जीवन न कर सकता हुवा इधर उधर से शिलान्छों को भी ग्रहण करे (अर्थात् शिलान्चों के होते हुए भी निन्दित प्रतिग्रह नले) क्यों कि प्रतिमह से शिन चुगना श्रेष्ठ है और शिल से भी कन्छ (चुगे पर चुगना ) श्रेष्ठ है ॥११२|| सीददि कुमिच्छमिर्धनं वा पृथिवीपतिः । याच्या स्यात्स्नातकवि पदिसंस्त्यागमर्हति ।११३ अकृतं च कृतात्क्षेत्राद् गौरजाविकमेव च । हिरण्यं धान्यमन्नं च पूर्व पूर्वमदापयत् ॥११४॥ सप्तपित्तागमा धा दायो लाम क्रय जय । प्रयोगकर्मयोगश्च सत्यनिग्रह एव च ॥११॥ विद्याशिल्पं मृति सेवा गारक्ष विगणिः कृषिः । प्रतिभॊक्ष्यं कुसीदं च दश जीवनहेतवः ॥११६॥ धान्य कुप्योऔर धन की इच्छा करने वाले. कुटुम्बादि पोषण के लिये धन के न होने से पीड़ित हुवे स्नातक विप्रो को राजा से याचना करनी योग्य है। परन्तु जो राजा देना नहीं चाहता. वह याचना करने योग्य नहीं है ॥११३॥ बनाये हुवे खेत से वे बनाया खेत, गाय, बकरी, मेड़, सोना. घान्ध और अन्न मे (यथा- ।