पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

देशमाऽध्याय १८३ .. सम्भव) पहिले २ में कम दोप है ।।११४॥ धर्म से प्राप्त इन सात प्रकार के धनों का पागम धर्मानुकूल है-प्रथम वश से चले श्राये हुवे धन का दाय भाग, दूमग भूमि आदि मे दवा धन मिल जाना, तीमरे वेचना, चौथे संपाम मे जय करना, पांचवें व्याज आदि से बढाना वा खेती करना आदि. छठा नौकरी करना और मातवां मज्जन से दान लेना ॥११५॥ ये दश जीवन के हेतु हैं . विद्या २ कारीगरी, ३ नौकरी, ४ संवा, ५ पशुरचा, दुकान दारी ७ खेती, सन्ताप, ९मिक्षा और १० व्याज ॥११॥ ब्राह्मण क्षत्रियो वापि वृद्धि नैन प्रोजयेत् । कामंतु खलु धर्मार्थ दद्यात्तापीयोधिकाम् ।११७ चतुर्थमाददानाऽपि क्षत्रियो. मागमापदि । प्रजारनम्परं शक्त्या किल्विात्सानिमुच्यते ॥११८|| ब्राह्मण और क्षत्रिय सूढ से धन बढाने को न दें। आपत्काल में चाहे तो धर्मकर्म निहाय नीच लोगों को थोड़ा धन देदे और थोड़ी सी वृद्धि लेले ॥११७|| आपकाल में धनादि का चतुर्थ भाग भी चाहे ग्रहण करता हो, परन्तु शक्ति मे प्रजा की रक्षा करता हुआ राजा उस (अधिक कर लेने के) पार से छट जाता है.॥११८॥ स्वधर्मो विजयस्तस्य नाइवे स्यात्पराङ्मुखः । शस्त्रेण वैश्यान रक्षिता धर्नामाहारयेद्वलिम् ॥११॥ धान्ये प्टमं विशां शुल्क विश कार्यापणावरम् । कपिकरणाः शूद्राः कारस- शिल्पिनस्तथा ॥१२०॥ शत्रु का जय करना राजा का स्वधर्म है। संग्राम में पीठ न