पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५८७

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मनुस्मृति भाषानुवाद देवे। शस्त्र से वैिश्या की रक्षा करके उन से उचित कर लेवे ॥११९॥ वैश्यों के धान्य उपचय (नो) म आठवें भाग को राना ग्रहण करे। और कार्षापण तक मरीफ के भाग पर २० वां भाग ले । (पहिले धान्य का १२ वां और मुवर्णादि का ५० या कहा था, यहा आपत्काल में अधिक कहा है)। तथा शूद्र कारीगर बढ़ई आदि काम करके कार्यरूप ही कर देने वाले हैं (इन से विपत्ति में भी कर न लेवे) ।।१२०॥ शूद्रस्तु वृत्तिमाकाङ्क्षन्क्षत्रमाराधयेदि । धनिनं वायुपाराध्य वेश्यं शूद्रो जिजीविषेत् ।१२१॥ स्वर्गार्थमुमयार्थ वा विशनाराधयेत् सः । जातवाहणशब्दस्य सा हस्य कृतकृत्यता ॥१२॥ शदहि जीविका चाहे तो क्षत्रिय की सेवा करे अथवा धनी वैश्य की सेवाकरके निर्वाह करं ॥१२ वर्ग और अपनी वृत्तिकी इन्छा वाला शूद्र ब्राह्मण की सेवा करे। ब्राह्मण का सेवक" इस शब्द ही से इस की कृतकृत्यता है ("या तु ब्राह्मणमेवाऽस्य' यह एक पुस्तक में तृतीय पाद का पाठान्तर है) ॥१२॥ विप्रसेचैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म क्रीत्यते । यदतोऽन्यद्धि कुरुते तद्भवत्यस्य निष्फलम् ।।१२३॥ प्रकल्प्या नस्य तैत्तिः स्वकुटुम्वाद्यथाहतः । शक्तिं चावेक्ष्य दाच्यं च भृत्यानां च परिग्रम्।१२४ क्यो कि ब्राह्मणकी सेवा शूद्रको अन्य कमों से श्रेष्ठकर्म कहा है, इस लिये इस से अतिरिक्त जो कुछ करता है, वह इस का निष्फल है ।।१२३|| उस परिचारक शूद्र की परिचर्या सामध्ये