पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५८८

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दशमाताय और काम में चतुराई तथा उस के घर के पोण्य का व्यय देख कर अपने घर के अनुसार उन (द्विजी) को जीविका नियत कर देनी चाहिये ॥१४॥ उच्छिष्टमन्नं दातव्यं जीर्णानिवसनानि च । पुलाकारचैवधान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदाः।१२५॥ न शूद्रपातकं किञ्चिन च संस्कारमईति । नास्याधिकारोधर्मेति न धर्मात्प्रतिपेधनम् ॥१२६॥ भोजन मे पचा अन्न और पुराने कपड़े और धान्यों की छटन तथा पुराना वरतन भाण्डा देना चाहिये ।।१२६॥ सेवक शूद्र को (दिनों के घर का ) कोई पातक नहीं है न कोई संस्कार योग्य है । क्यों कि न तो (उन द्विजो के ) धर्म में इस का अधिकार है और न ( अपने ) धर्म से इस को निषेध है ।।१२।। धर्मेप्सवस्तु धर्मज्ञाः सतां धूतमनुष्ठिताः । मंत्रचर्जन दुष्यन्ति प्रशंसां प्रवन्ति च ॥१२७॥ धर्म की इच्छा वाले तथा धर्म को जानने वाले शूर मन्त्र- चर्जित सत्पुरुषों का प्राचरण करते हुवे दोषको नहीं किन्तु प्रशंसा को प्राप्त होते हैं । (भाव यह है कि धर्मकार्य यज्ञादि करनेका शुद्धो का अधिकार (इस्तहार) नहीं है। अथात् यदि द्विज लॉग किमी शूद्र को अयोग्य समझ कर रोके तो उस का यह अधिकार ( इस्तृहकाफ) नहीं है कि वह राजनारादि से कानूनन अपना स्वत्व मिद्ध कर पात्र । परन्तु उस को धर्म करनेकी मनाई भी नहीं है कि शूव धर्म करे ही नही, किन्तु (धर्मेप्सव') यदि शुद्ध धर्म करना चाहें और (धर्मना.)धर्म करना जानते भी हो तो बिना बंदमन्त्रों के उच्चारण ही यज्ञ होमादि कर सकते हैं। उस में जन का अमन्त्र होम का कोई दाप नहीं (क्यो कि व पदना जागते