पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५८९

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मनुस्मृति भापानुवाद ही नहीं) प्रत्युत उन की प्रशंमा होती है कि ये ,धर्म में श्रद्धा करते हैं ) ॥१२॥ यथा यथा हि सवृत्तमातिष्ठत्यनायकः । तथा तथेम चामुं चलेोकं प्राप्नोत्यऽनिन्दितः।१२८/ निन्दारहित शह जैसे र गर्व छोड़ कर अच्छे आचरण करता वैसे २ इस लोक तथा परलोक में उत्कृष्टता को प्राप्त होता है।।१२८॥ शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्योधनसञ्चयः । शद्रोहि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव बाधते ॥१२६॥ एते चतुणी वर्णानामापद्धमाः प्रकीर्तिताः । यान्सम्यगनतिष्ठन्ता ब्रजन्ति परमां गतिम् ॥१३०॥ समर्थ शूद्र को भी धन सञ्चय न करना चाहिये, क्यो कि शद्र धन को पाकर ब्राहाणादि का ही बावा देता है ।।१२९॥ ये चारांवों के आपत्काल क धर्म कहे। जिन को अच्छे प्रकार आचरण करते हुवे ( मनुष्य ) मोक्ष का प्राप्त होते हैं ।।१३०॥ एप धावधिः कृस्तश्चातुर्यास्य कीर्तितः । अतः परं प्रवक्ष्यामि प्रायविचविधि शुभम् ॥१३॥ यह सम्पूर्ण चारो वर्णो की कर्मविधि कही । इस के उपरान्त शुभ प्रायश्चित्त विधि कहूंगा ॥१३१॥ इति मानवे धर्मशास्त्र ( भृगुणोक्तायां संहितायां) दशमोऽध्यायः ॥१०॥ इति श्री तुलसीरामस्वामिविरचिते मनुस्मृतिमापानुवादे दशमोध्यायः ॥१०॥