पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५९०

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सोम अथ एकादशोऽध्यायः सान्तानिक यच्यमाणमध्वगं सर्ववेदसम् । गुर्वथै पितृमात्र स्वाध्यायार्थ्यपतापिनौ ॥१॥ नतान्स्नातकावियाग्रामणान् धर्मभिक्षुकान् । निस्वेग्यो देयमेतेभ्यो दानं विद्या विशेषतः ॥२॥ सन्तानार्थ विवाह के प्रयोजन बाला और ज्योतिष्टोमादि यज्ञ करने की इच्छावाला तथा मार्ग चलनेवाला और जिसने सम्पूर्णवन दक्षिणा देकर यज्ञ में लगा दिया वह और गुरु तथा माता और पिता के लिये धनका अर्थी और विद्यार्थी और रोगी ॥१॥ इन ९ स्नातकों को धर्मभितक ब्राह्मण जाने और ये निर्धन हो तो इनको विद्या की विशेषता अनुसार दान देना चाहिये||२|| एतेभ्योहि द्विजाप्रयेभ्यो देयमन्त्र सदक्षिणम् । इतरेम्या पहिदि कृतान्न देयमुच्यते ॥३॥ सनरत्नानि राजा तु यथाई प्रतिपादयेत् । ब्राह्मणान्वेदविदुषो यज्ञार्थ चैव दक्षिणाम् ॥४॥ इन द्विजप्टो को दक्षिण के साथ अन्न देना चाहिये और दूसरों का वेदी के बाहर पका अन्न देना कहा है ॥ राजा वेद का जानन वाजे ब्राह्मणो को यज्ञ के लिये सम्पूर्ण रल दक्षिणा यथा योग्य देवे कृतदारे ऽपगन्दारान्भिक्षित्वा योधिगच्छति ।