पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५९१

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4.2 ५८८ मनुस्मृति भाषानुवाद रतिमात्रं फलं तस्य द्रव्यदातुस्तु सन्ततिः ॥५॥ धनानि तु यथाशक्ति विनषु प्रतिपादयेत् । वेदवित्सु विविक्तेषु प्रत्य स्वर्ग समश्नुते ॥६॥ जो विवाहित पुरुप भिक्षा मांग कर दूसरा विवाह करता है उसका रविमात्र फल कहा है। और उम की मन्तति द्रव्य देन वाले की है ॥५॥ यथाशक्ति वेद के जानने वाले निःसङ्ग नामों काधन नेबे (उम से) परलोक में स्वर्ग का पाता है यस्य त्रैवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं भृत्यवृत्तये । अधिकं वापि वियेत स सामं पातुमर्हति ॥७॥ अत: स्वल्पीयसि द्रव्ये यः सोम मिपनि द्विजः । म पातनामपूर्वाऽपि न तस्याप्नोति तकनम् ||८|| जिस के आवश्यक व्यय तीन वर्ष तक कुटुम्चियों के निर्वाह योग्य बन वा इस से अधिक हो वह सोम यज्ञ करने योग्य है|| इमसे कम द्रव्य होने में जो द्विज सोम यज्ञ करता है उस का प्रथम सामयश भी नहीं सम्पन्न होता । (इस से दूमरा या करना ठीक नहीं है क्योकि- 10 शक्त परजने दाता खजने दुःखजीविनि । मध्वापाता विषास्वाद. स धर्मप्रतिरूपकः ॥ll भृत्यानामुपरोधेन यत्करोत्यौनदेहिकम् । । तद्भवत्यसुखोदकं जीवनच मृतस्य च ॥१०॥ जो कुटुम्बियों के दुःखी भूखे मरते हुवं परजन को देता है वह मव का त्याग और विष का चाटने वाला धर्म विरोधी है ।।५।।