पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५९४

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एकादशाऽध्याय ५९१ लेना योग्य है ॥१॥ योमाधुम्योऽर्थमादाय माधुभ्यः मंग्रयच्छनि । सकृन्वा प्लबमात्मानं संतारयति नावुभौ ॥१६॥ यद्धनं यज्ञशीलानां टेबम्ब नाहिदु धाः । अयज्वनां तु यद्वितमामुग्यं तदुच्यने ।२० जा धमाधुओं से धन लेकर मात्रा का देता है वह अपने कानाव बनाकर शानों को पार उतारता है।॥१९॥ सर्वदा यन करने वालों का जो धन है उसका पण्डिन "देवधन' समझते हैं और यक्ष न करने वाला का जो धन है वह 'प्रामुग्धन" कहाना है ॥२० न नम्मिन्धारबद्दण्ड धार्मिकः पृथिवीपतिः । क्षत्रियस्य हि बालिण्याबामणः सीदनि बुधा ॥२१॥ तस्य मृत्यजनं ज्ञात्वा म्बकुटुम्बान्महीपतिः । श्रुतशीले व विनाय धृत्ति धा प्रकल्पयेत्।।२२॥ उम (६ यार की भूख में परधन लेने वाले) को धार्मिक दण्ड न देव ।क्योकि राजा ही के मूह होने में ब्राह्मण नपा से पीडित होता है ।।२१।। (बल्कि) उस ग्रामण के पुत्रादि पोष्यवर्गों और विद्या तथा समाचार का जान कर राजा अपने निज से उस का धर्मानुकूल जीविका का प्रबन्ध करदे ॥२२॥ कल्पयित्वाऽस्य चूचि च र देनं समन्ततः । राजाहि धर्मषड्भागं तस्मात्प्राप्नोतिरक्षितात् ॥२३॥ न यज्ञार्थ धनं शूद्राद्विप्रोभिक्षत कर्हि चित् ।