पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५९५

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१५२ मनुस्मृति भाषानुवाद यजमानाहि भितित्वा चण्डालः प्रेत्य जायते ॥२४॥ इस (ब्राह्मए) की जीविका नियत करके सब ओर से इसकी रक्षा करे। क्योंकि उस की रक्षा से धर्म का छटा भाग राजा को प्राप्त होता है ।।२२यह कलियं ग्रामण शह से धन कभी न मांगे क्योकि (शुद्र से) भिक्षा माग कर यज्ञ करने वाला भरने पर चण्डाल होता है । यज्ञार्थमर्थ मिक्षित्वा या न सर्न प्रयच्छति । स यातिमासतां विप्रः काकतां वा शतं समाः ॥२५॥ देवस्व मामयस्व वालोमेनापहिनस्ति यः । स पापात्मा परे लोके गृघोच्छिष्टेन जीवति ।२६॥ यज्ञ के लिये भिक्षा मांग कर जो मन नहीं लगाता वह सौ वर्ष तक भास (गोष्ठकुक्कुट) वा काक होता है ॥२५॥ देव धन और ब्राह्मण धन की जो लोभ से हरता है वह पापात्मा परलोक में शिव की मूठ से जीवता है ॥२६॥ 'इष्टिं वैश्वानरी नित्व निवपचन्नपर्यो । मल्लप्तानां पशुसोमानां निष्कृत्यर्थमसम्भवे ।।२।। आपत्कल्पेन योधर कुरुतऽनापति द्विजः। स नाम्नाति फलं तस्य परत्रेति विचारितम् ॥२८॥ (वर्ष के समाप्त होने में दूसरे वर्ष की प्रवृत्ति को अब्दपर्यय कहते हैं) उस चैत्र शुक्ल से आदि लेकर वर्ष की प्रवृत्ति में विहित सोमयज्ञ के न हो सकनेमे उसके दोप दूर करने को सर्वदा शूद्रादि से उक्त धन हरण रूप पापके प्रायश्चिचार्थ वैश्वानरी इष्टि करें। ४१ २६-२७ के हेतुओं से भी यह प्रक्षिप्त है) ॥रणा जो द्विज