पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५९६

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एकादराऽध्याय ५९३ भापकाल के धर्म को अनापकाल में करता है उस का कर्म पर- लोक में निष्फल होता है। ऐसा विचार है Ral विश्वेश्चदेवैः साध्यैश्च ब्राह्मणैश्च महर्षिभिः । आपत्सु मरणाहीतैविधे: प्रतिनिधिः कृतः ॥२६॥ प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकम्पेन घर्तते । न साम्परायिक तस्य दुर्मतेर्विद्यते फलम् ॥३०॥ क्यों कि सब देवों और साध्यो तथा महर्षि और ब्राह्मणों ने आपकालमै मरणसे डर कर विधि का प्रतिनिधि आपद्धर्म नियत किया है ।२९॥ जा मुख्यानुशान करने की शक्ति वाला होकर आपतके लिये विहित प्रतिनिधि अनुष्ठान करता है उस दुर्वद्वि को पारलौकिक फल नहीं है (इस से ऐसा न करे) ॥३०॥ न बामणो वेदयेत किञ्चिद्राजनि धर्मवित् । स्ववीर्यणेव तान् शिष्यान्मानवाननकारिणः ॥३१॥ स्त्रवीर्याद्राजकीयांचस्ववीयं बलवत्तरम् । तस्मात्स्वेनैव वीर्येण निगृह्णीयादरीन्द्विजः ॥३२॥ धर्म का जानने वाला ब्राह्मण कुत्र थोडे (नुकसान हुवे) को राजा मे न कहे किन्तु अपने ही पुरुषार्थ से उन अपार करने वाले मनुष्यों को शिक्षा देवे ॥३१|| अपना सामर्थ्य और राजा का सामध्यं इन दोनोंमें अपना सामध्ये अधिक बलवान है। इस कारण ब्राह्मण अपने ही सामर्थ्य से शत्रुओ का निमह करे ।३२। श्रुतीरथर्वाङ्गिरसीः कुर्यादित्यविचारयन् । वाक्शस्त्र नै ब्राह्मणस्य तेन हन्यादरीन्द्विज ३