पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५९७

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५९४ मनुस्मृति भापानुवार । क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरेदापदमात्मनः। धनेन अश्पशूद्रौ तु जपहोमैद्विजोत्तमः ॥३४॥ अथर्ववेद की दुष्टामिचार अतियो की (बिना विचार ) शीन प्रयोग करे । इसी अभिचार के उच्चारण रूप शस्त्र वाला होने से ब्राह्मण की वाणी शस्त्र है। ब्राह्मण उस से शत्रो को मारे ।३१॥ क्षत्रिय वाहुयल से अपनी भापति दूर करे वैश्य और शूद्र धन से तथा ब्राह्मण जप होम से प्रापद को दूर करे। (३१ से ३४ तक पारो षणों को अपनी २ आपत्ति से बचने के लिये उपदेश हैं । क्षत्रिय बल और वैश्य शद्र धन वा दीनता से अपने को बचायें। पान्तु ब्राह्मण का धन वेद है वह वेद से आप को वचावे । अथववेदादि मे जो शत्रुसे अपनी रक्षाकी प्रार्थना और शत्र के नाश की प्रार्थना है उन्हीं का परमात्मा से सहायतार्य मांगे। परमात्मा उस के सच्चे ब्राह्मणत्व को जानना हुवा अवश्य उस की रक्षा का सावन कुछ न कुछ उत्पन्न करदेगा। आस्तिको को उसमें कुछ सन्देह नहीं हो सकता । परन्तु ऐसे प्राक्षण सहस्रो वर्षमें कोई कभी होते हैं बहुतनही तथासपके हितकारी होने से उनकेसाथ शत्रुता भी बहुतही थोडे लोग करते हैं। परन्तु तो भी ३३ बेमे जी ब्राह्मण को पराये हननके लिये प्रार्थना करनेको उत्तजित किया है सो कुछ अनुचित जान पड़ता है। यूं तो अपने २ दुःखों और दुःखदायको का निवारण सभी चाहते हैं परन्तु ब्राह्मणको इसप्रकार उत्तेजित करना कि (हन्यादेव) 'मारेही" और (अविचारयन् धिना विचारे शीग्रही भला कुछठीक है इसके अतिरिक्त इसमें (इत्यविचारयन्) में "इति शब्द घेढङ्गा और निरर्थक है । जो मनु की शैली से नहीं मिलता। तथा एक पुस्तक में इस की जगह (इत्यवघारितम्) और अन्य दो पुस्तको में इत्यभिचारयन् पाठान्तर हैं और ।