पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५९८

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कासाऽध्याय इति शब्द सब पाठों में व्ययं ही रहता है। तथा इस से आगे ३० पुस्तकों में से १ में नीचे लिखा श्लोक अधिक मिलता है। जिससे यह सन्देह पुष्ट सा होता है कि ऊपर का ३० वां भी जिसके पाठ भी कई प्रकारके मिलते हैं औरशैलीभी भिन्न है कदाचितपीछे काबनाही हो । अधिक श्लोक जो सव पुस्तकों मेंनही मिलने पाया है यह है- सदस्यं सर्गवर्णानामनिवार्य च शक्तितः । तपोवीर्यप्रमावेश अवध्यानगि वाधते ] . अर्थात् वप वीर्य के प्रभाव से जो अवध्यों की भी बाधा कर सकता है वह यह अस्त्र शक्ति में किसी वर्ण से निवारित नहीं हो सकता ॥३४ वे श्लोक के बीच में ही पूर्वार्ध से आगे आधा श्लोक दो पुस्तकों में और मिलाया दीख पड़ता है फि.- तद्धि कुर्वन् यथाशक्ति पाप्नोति परमां गतिम् ] इस से यह भी पाया जाता है कि कई श्लोकों में अर्ध भाग भी प्रक्षिप्त हुवा है ) ॥३४॥ विधाता शासिता वक्ता स्त्रोवाहणउच्यते । तस्मैनाकुशन व यान शुष्का गिरमीरयेत् ॥३५॥ न कन्या न पुनतिर्नाल्पविद्यो न बालिशः। होता स्यादग्निहोत्रस्य नातीनामत्कृतस्तथा ॥३६॥ विहित कर्मों का अनुष्ठान करने वाला पुत्र शिष्यों को शिक्षा करने वाला और प्रायधिचादिधर्मों का बताने वाला सवका मित्र ब्राह्मण कहा है। उस से कोई बुरी पावन वाले और रूखी बोली भी न बोले ॥३५|| कन्यायुवति थोड़ा पढ़ा और अपढ़ तथा बीमार