पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६०

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प्रथमाध्याय . येयां तु यादृशं कर्म भूतानामिह कीर्तितम् । तत्तथा वा भिधास्यामि क्रमयोगं च जन्मनि ॥ ४२ ॥ इस संसार में जिन प्राणियों का जो कर्म कहा है उसी प्रकार हम कहेंगे तथा उनके जन्म में क्रम भी (कहेंगे) ॥४|| पशवश्च मगाश्चैव व्यालाश्चाभयतोदतः । रक्षांसि च पिशाचाश्च मनुष्यारच जरायुजाः ॥४३॥ अण्डलाः पविणः सर्पा नक्रामत्स्याश्चकच्छपाः। यानि चैवं प्रकागणि स्थलजान्यौदकानि च ॥४४॥ जरायु (गर्म की मिल्ली) से जा उत्पन्न हो उसे जरायुज कहते हैं ] गाय आदि पशु हरिणादि मृग. लिह और जिन के अपर नीचे दात होते हैं वे और राक्षस (स्वार्थी ) पिशाच (कच्चे मांस खाने वाले )मनुष्य ये सब जरायुज हैं ॥ ४३ ॥ और पक्षी (परन्द) सर्व नाक, कछुवे इत्यादि इसी प्रकार के भूमि पर तथा पानी में उत्पन्न होने वाले भी सब अण्डन कहलाते हैं । ४४ ॥ स्वेद दंशमशकं यूकामक्षिकमत्कुणम् । उष्मणश्चोपजायन्ते यचान्यत्किंचिदीदृशम् ॥४॥ उद्विजाःस्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः । ओपथ्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफनोपगाः ॥ ४६ ॥ मच्छर और काटने वाले चन्द्र जीव, जुआं, मक्षिका खटमल इत्यादि और जो गरमी से उत्पन्न होते हैं और जो इन्हीं के सदृश (चीटियां इत्यादि) म्वेदन अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले है ॥ ४५ ॥ जो भूमि को फाड़ कर अपर निकले, उन को उद्विज्ज +